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भगवद गीता: अध्याय 1, श्लोक 22 – शत्रु कौन है? अर्जुन की युद्धपूर्व दृष्टि

 

श्लोक :

यावत्स्येतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् |
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥ 1.22

शब्दार्थ :
यावत् – जब तक
एतान् निरीक्षे अहम् – मैं इनको देख न लूं
योद्धुकामान् अवस्थितान् – जो युद्ध की इच्छा से खड़े हैं
कैः मया सह योद्धव्यम् – किनके साथ मुझे युद्ध करना है
अस्मिन् रणसमुद्यमे – इस युद्ध के महान अवसर पर

अनुवाद (Translation)
अर्जुन बोले: “मैं यह देखना चाहता हूँ कि इस महान युद्ध के लिए किस-किस से मुझे युद्ध करना होगा, जो यहाँ युद्ध की इच्छा से खड़े हैं।”

भावार्थ
अर्जुन युद्ध से पहले अपनी रणनीति बनाना चाहते हैं। वे जानना चाहते हैं कि उनके विरुद्ध कौन-कौन खड़ा है। यह श्लोक स्पष्ट करता है कि अर्जुन केवल बाहरी शत्रुओं को नहीं, बल्कि भीतर उठते भावों को भी पहचानना चाहते हैं।
यह वह क्षण है जब अर्जुन बाहरी युद्ध को भीतर के संघर्ष से जोड़ते हैं।

गूढ़ अर्थ (Deeper Insight)
जब हम जीवन में किसी निर्णय या संघर्ष के द्वार पर खड़े होते हैं, तो पहला सवाल यही होता है — “मुझे किससे लड़ना है?”
परंतु यह लड़ाई बाहरी नहीं होती — ये हमारे मोह, इच्छाएँ, संकोच, और डर होते हैं। जैसे अर्जुन पूछ रहे हैं — “किनसे युद्ध करूं?” वैसे ही हमें भी पूछना पड़ता है —  “मुझे क्या छोड़ना होगा?” (“मुझे किन कमजोरियों का सामना करना होगा?”)

Spiritual Insight (आध्यात्मिक दृष्टिकोण)
यह श्लोक बताता है कि आत्म-अवलोकन के बिना कोई भी लड़ाई (आंतरिक या बाहरी) सार्थक नहीं हो सकती। शत्रु को पहचानना आवश्यक है — चाहे वह राग-द्वेष हो, या माया-मोह। जब हम अपने भीतर उठते द्वंद्व को पहचानते हैं, तभी सही दिशा में कदम उठा पाते हैं।

जीवन में प्रयोग (Practical Application)
जब आप किसी परिवर्तन, निर्णय, या संघर्ष के द्वार पर हों — तो एक बार बैठें और पूछें: “मेरे भीतर क्या है जिससे मुझे सामना करना है?” यह प्रश्न ही आपको अपने आंतरिक अर्जुन से मिलवा देगा।

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