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मैं आई तेरे आँगन में, कविता

मैं आई तेरे आँगन में, आम बेचन श्याम,
न भाव था व्यापार का, बस दरस की थी प्यास।
घूँघट में छुपा चेहरा, मन में थी लाज,
पर नजरें ढूंढती थीं बस, तेरी मधुर आवाज।
तू खेल रहा था बालकों संग, मुरली ताने हाथ,
मैं थर-थर काँप रही थी, मन कहे – आज तो बात।
तू आया पास हँसते हुए, माँगा आम स्वाद,
तेरी मुस्कान में बसी थी, हर जन्मों की बात।
मैं कांपी, बोली धीरे से – “श्याम! तू ही जान,
तेरे दर्शन के लिए लाई हूँ ये छोटे से दान।”
तेरी कृपा अपार है, तू प्रेम से जो दे दे,
गेहूँ के दो मुठ्ठी भर, वो भी लगे खजाने से।
मैं तो बस तेरी दासी हूँ, मेरे पास क्या था?
पर तूने जो देखा, वो प्रेम था, न कोई दिखावा था।
तू जानता है रे कान्हा! सब तेरा ही तो है,
मैं भी, ये जीवन भी, ये आम की टोकरी भी तेरे चरणों में है।
न मांगू अब कुछ संसार से, न चाहूँ धन-दौलत,
बस तेरा नाम बस जाए इस प्राण की हर साँस में।

भावार्थ:
यह कविता एक ऐसी गोपी की भावनाओं को व्यक्त करती है, जो श्रीकृष्ण के सामने खुद को पूर्णतः समर्पित कर चुकी है। वह जानती है कि उसके पास कुछ देने को नहीं, फिर भी प्रेम की सच्चाई और समर्पण श्रीकृष्ण को मोहित कर देती है।

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