भाव: "वृन्दावन का मधुर मिलन"
वृन्दावन की छाया में,
श्याम संग खेले बाल,
कमल-पुष्प भी मुस्काएं,
देखे यह रसमय हाल।
कंचन जैसी धूप बिखरी,
वृक्षों में मंजर लगे,
प्रेम-रस की थाली लेकर,
सखा संग मोहन जगे।
ना है कोई भेद-भाव,
ना रंक-धनी की बात,
सखा बना है ईश्वर मेरा,
बांट रहा है प्रीत-संतात। भोजन नहीं,
यह प्रेम का अर्पण है मधुर भाव से,
साक्षात ब्रह्म खेल रहे हैं,
निष्कलंक इन लीलाओं में।
गगन में देव निहार रहे,
नीचे धरती धन्य हुई,
जहाँ-जहाँ पग रखे कान्हा,
वहाँ-वहाँ वृन्दावन हुई।
श्यामसुंदर बाल रूप में अपने सखा मंडल के साथ वन में बैठे हैं — कोई फल खिला रहा है, कोई हँसी बाँट रहा है। यह केवल भोजन नहीं, यह प्रेम का प्रसाद है। वृन्दावन की शांति, कमल की कोमलता और मित्रता की पवित्रता — सब एक साथ सजीव हो गई है श्रीकृष्ण की इस मधुर लीला में।