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भगवद गीता – अध्याय 1, श्लोक 31, अर्जुन का मोह – धर्म का भ्रम और कर्तव्य से पलायन


संस्कृत श्लोक:

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे |

न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ॥ 31॥


शब्दार्थ (Shabdarth):

न च श्रेयः अनुपश्यामि – मुझे कोई कल्याण नहीं दिखता

हत्वा – मारकर

स्वजनम् – अपने ही कुटुंबियों को

आहवे – युद्ध में

न काङ्क्षे – मुझे नहीं चाहिए

विजयम् – विजय

कृष्ण – हे कृष्ण

न च राज्यं – न ही राज्य

सुखानि च – और न ही सुख


हिंदी अनुवाद (Anuvaad):

हे कृष्ण! मैं अपने स्वजनों को युद्ध में मारकर कोई भी कल्याण नहीं देखता।

मुझे न राज्य की इच्छा है, न विजय की, और न ही किसी प्रकार के सुख की।


भावार्थ (Simple Meaning):

अर्जुन कहता है कि स्वजनों की हत्या करके प्राप्त होने वाला राज्य, विजय या सुख उसे व्यर्थ लगता है।

उसकी दृष्टि में, इस युद्ध का कोई सकारात्मक परिणाम नहीं है — यह केवल विनाश और पीड़ा लाएगा।


गूढ़ अर्थ (Deeper Insight):

इस श्लोक में अर्जुन की भावुकता और मोह चरम पर पहुँच चुके हैं।

वह कर्तव्य और भावना के द्वंद्व में उलझ गया है।

वह युद्ध से विचलित नहीं है, बल्कि धर्म के सही रूप को लेकर भ्रमित है।

यह श्लोक इस बात का दर्पण है कि जब हमारी दृष्टि केवल मोह और रिश्तों से बंधी होती है,

तब हम धर्म और अधर्म में अंतर नहीं कर पाते।


आध्यात्मिक शिक्षा (Spiritual Lesson):

जीवन में कई बार हमें भी अर्जुन की तरह लगता है कि सफलता,

अधिकार या भौतिक सुख निरर्थक हैं यदि उनका मूल्य बहुत अधिक चुकाना पड़े।

यह श्लोक सिखाता है कि केवल भावनाओं के आधार पर निर्णय लेना उचित नहीं होता।

धर्म और कर्तव्य को समझने के लिए श्रीकृष्ण जैसे दिव्य विवेक की आवश्यकता होती है।


जीवन में प्रयोग (Practical Application):

जब आप किसी निर्णय में उलझे हों और मन मोह या रिश्तों के कारण भ्रमित हो,

तब श्रीकृष्ण से प्रार्थना करें – “हे प्रभु! मुझे धर्म का मार्ग दिखाइए।


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