भगवद गीता – अध्याय 1, श्लोक 30, अर्जुन का भ्रम और निर्णयशक्ति का ह्रास
श्लोक:
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः |
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ॥ 30॥
शब्दार्थ (Shabdarth):
न च शक्नोमि – मैं नहीं कर पा रहा
अवस्थातुं – स्थिर रहना
भ्रमति – भ्रमित हो रहा है
इव च मे मनः – जैसे मेरा मन
निमित्तानि – शकुन, संकेत
च पश्यामि – मैं देख रहा हूँ
विपरीतानि – उल्टे, प्रतिकूल
केशव – हे केशव (कृष्ण)
हिंदी अनुवाद (Anuvaad):
हे केशव! मेरा मन भ्रमित हो रहा है, मैं स्थिर नहीं रह पा रहा हूँ और मुझे युद्ध के लिए सभी संकेत प्रतिकूल ही दिखाई दे रहे हैं।
भावार्थ (Simple Meaning):
यह श्लोक अर्जुन की मानसिक स्थिरता के पूर्ण ह्रास को दर्शाता है।
वह अब न तो खड़ा रह पा रहा है, न निर्णय ले पा रहा है।
उसे हर ओर से नकारात्मक संकेत और विपरीत परिणाम नजर आने लगे हैं।
गूढ़ अर्थ (Deeper Insight):
यह श्लोक केवल अर्जुन के डर को नहीं, बल्कि एक युद्ध से पहले की आंतरिक टूटन को दर्शाता है।
जब हम अपने कर्तव्यों से भागते हैं, तो मन भ्रमित होता है,
इंद्रियाँ कमजोर पड़ती हैं, और नकारात्मकता हावी हो जाती है।
यह संकेत करता है कि मनुष्य का सबसे बड़ा युद्ध अपने भीतर होता है,
और जब विवेक डगमगाता है तो बाहरी युद्ध हारने से पहले ही भीतर हार शुरू हो जाती है।
आध्यात्मिक शिक्षा (Spiritual Lesson):
जब जीवन में अंधकार और डर घेर ले, तब मन का डगमगाना स्वाभाविक है।
पर उस समय हमें किसी ‘केशव’ — मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है।
इस श्लोक में अर्जुन ईश्वर की ओर मुड़ रहा है, यह संकेत है कि अब ज्ञान प्रकट होने वाला है।
जीवन में प्रयोग (Practical Application):
जब आपको कोई निर्णय लेने में कठिनाई हो, और आपका मन स्थिर न रह पा रहा हो,
तो शांति से बैठकर, प्रार्थना और चिंतन करें।सही मार्गदर्शन भीतर से ही मिलेगा,
जैसे अर्जुन को श्रीकृष्ण से मिला।
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