Vrindavan ki Yamuna
mein Krishna leela
यमुना की लहरों में जहर सा बसा,
कालिय का अहंकार जल में था तना।
नीलमणि श्याम, जब उतरे वहाँ,
नृत्य की थापों से कम्पित धरा।
नवनीत चोर, कन्हैया विराजे,
पैरों में बंधा, नाग भागे न आज।
पाँच सौ फनों पे चरणों की छाया,
बंसी की धुन में समर्पण की माया।
“हे प्रभु!”
कहा नाग ने कांपते स्वर,
“मैं अंधकार हूँ, आप नीलांबर।
जहर मेरा, पर जीवन आप हो,
क्रोध मेरा, पर दया का जाप हो।”
श्याम ने मुस्काया, दृष्टि थी गहन,
“अहं का नाश ही है ब्रज का वरण।
मेरा नृत्य, तेरा नव जन्म बने,
अब से तू भी भक्ति में रम जाए।”
“मेरे चरणों का चिह्न तेरे शीश पर,
अब तुझे कोई नहीं डिगा सकता डर।
जा कालिय, अब वास तेरा यहीं नहीं,
पावन बनाओ जल को — यही है वाणी मेरी।”
कालिय ने शीश नवाया, नेत्रों में अश्रु लहराए,
कृष्ण के चरणों में जीवन की राहें पाए।
यमुना फिर से निर्मल हो चली,
कन्हैया की लीला से ब्रज भूमि खिली।
भावार्थ:
यह कविता बताती है कि अहंकारी और विषैला हृदय भी जब प्रभु की छाया में आता है, तो उसका हृदय निर्मल हो सकता है। कालिय का विष, कृष्ण के चरणों में समर्पण बन गया
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